आगरा की धरती, ताजमहल की छाँव,
वहीं से निकले दो सच्चे नाम।
एक जितेंद्र कुशवाहा, दूसरा अनीश खान,
दो धर्मों से परे, इंसानियत के रखवाले महान
सन 2012 की सुबह थी वो खास,
जब दोनों ने पहली बार थामा पत्रकारिता का आस।
हाथों में माइक, आँखों में रोशनी,
सच की खोज में दोनों की थी समान नीयत और सोच सजीनी।

एक मंदिर जाता, दूसरा मस्जिद में सिर झुकाता,
पर दोनों की आत्मा बस सच्चाई में रम जाती।
गांव से लेकर शहर तक, हर ख़बर को छाना,
सत्ता से सवाल किया, जनता का दर्द दिखाना।
खंदौली की गलियों से आवाज़ उठाते,
कभी शाहगंज, कभी कालिंदी विहार तक जाते।
कभी बारिश में रिपोर्टिंग, कभी धूप में लाइव,
सच की डगर पर दोनों हमेशा एक्टिव।
टीवी चैनल, न्यूज़ पोर्टल, प्रिंट मीडिया की दुनिया में,
दोनों का नाम गूंजता है हर अख़बार की बुनियाद में।
जहाँ अन्य रुक जाते, वहाँ से ये आगे बढ़ते,
क्योंकि इनके लिए खबर सिर्फ पेशा नहीं, एक जिम्मेदारी बनती।

समाज ने कहा — “ये दोस्ती नहीं टिकेगी,”
कभी कोई बोला — “धर्म बीच में अड़केगा।”
पर जितेंद्र और अनीश ने मुस्कुराकर कहा,
“हमारी दोस्ती का धर्म है — पत्रकारिता और सच्चा वफा।”
सुबह की पहली चाय साथ,
दिन की पहली खबर साथ,
रात की आख़िरी एडिटिंग तक,
दोनों के विचार साथ।
14 से 26 तक का सफर एक साथ तय,
कभी गुजरात, कभी हरियाणा, कभी पटना की लय।
जहाँ भी गए, साथ में गए,
सच्चाई का परचम लिए।

कभी अनीश के कैमरे की नज़र में सच्चाई दिखती,
तो जितेंद्र के शब्दों में आग सी जलती।
दोनों मिलकर खबर बनाते,
जनता के दिल में भरोसा जगाते।
समाज ने बहुत कोशिश की,
इनकी दोस्ती तोड़ने की साजिश की।
पर लोगों को क्या पता,
ये रिश्ता है स्याही और कागज़ का —
जो जितना लिखा जाए, उतना और गहरा होता है।
आज भी जिंदा हैं दोनों —
ना सिर्फ जिस्म से, बल्कि जज़्बातों से।
उनका नाम आज भी मीडिया की गलियों में गूंजता है,
जब कोई कहता है —
“सच्ची पत्रकारिता मर गई”,
तो कोई आवाज़ आती है —
“नहीं, जब तक जितेंद्र और अनीश हैं, सच्चाई जिंदा है।”
लोग कहते हैं —
“इनकी कहानी खत्म नहीं होगी,
ये दोस्ती आगरा की पहचान बन चुकी है।”
दोनों आज भी सुबह मिलते हैं,
चाय की प्याली में खबरों की बहस चलती है।
कभी मंदिर जाते हैं, कभी मस्जिद,
कभी गुरुद्वारे में संग मत्था टेकते हैं —
क्योंकि इनके दिल में मज़हब नहीं,
बस इंसानियत का धर्म है।

और जब शाम ढलती है,
तो दोनों फिर कल की योजना बनाते हैं —
कौन सी खबर दिखानी है, किसकी आवाज़ उठानी है।
साथ बैठकर मुस्कुराते हैं और कहते हैं —
“सफर अभी बाकी है दोस्त,
कहानी अभी अधूरी नहीं।”
दो धर्म, एक दिल — यही है इनका सार,
मीडिया की स्याही में लिखे ये प्यार के अक्षर अपार।
जितेंद्र और अनीश, सिर्फ नाम नहीं मिसाल हैं,
इनकी दोस्ती – आगरा की सबसे खूबसूरत ताल है।🕊️ दो धर्म, एक दिल – आगरा के दो सच्चे पत्रकारों की जीवंत कहानी
आगरा की धरती, ताजमहल की छाँव,
वहीं से निकले दो सच्चे नाम।
एक जितेंद्र कुशवाहा, दूसरा अनीश खान,
दो धर्मों से परे, इंसानियत के रखवाले महान।
सन 2012 की सुबह थी वो खास,
जब दोनों ने पहली बार थामा पत्रकारिता का आस।
हाथों में माइक, आँखों में रोशनी,
सच की खोज में दोनों की थी समान नीयत और सोच सजीनी।
एक मंदिर जाता, दूसरा मस्जिद में सिर झुकाता,
पर दोनों की आत्मा बस सच्चाई में रम जाती।
गांव से लेकर शहर तक, हर ख़बर को छाना,
सत्ता से सवाल किया, जनता का दर्द दिखाना।
खंदौली की गलियों से आवाज़ उठाते,
कभी शाहगंज, कभी कालिंदी विहार तक जाते।
कभी बारिश में रिपोर्टिंग, कभी धूप में लाइव,
सच की डगर पर दोनों हमेशा एक्टिव।
टीवी चैनल, न्यूज़ पोर्टल, प्रिंट मीडिया की दुनिया में,
दोनों का नाम गूंजता है हर अख़बार की बुनियाद में।
जहाँ अन्य रुक जाते, वहाँ से ये आगे बढ़ते,
क्योंकि इनके लिए खबर सिर्फ पेशा नहीं, एक जिम्मेदारी बनती।
समाज ने कहा — “ये दोस्ती नहीं टिकेगी,”
कभी कोई बोला — “धर्म बीच में अड़केगा।”
पर जितेंद्र और अनीश ने मुस्कुराकर कहा,
“हमारी दोस्ती का धर्म है — पत्रकारिता और सच्चा वफा।”
सुबह की पहली चाय साथ,
दिन की पहली खबर साथ,
रात की आख़िरी एडिटिंग तक,
दोनों के विचार साथ।
14 से 26 तक का सफर एक साथ तय,
कभी गुजरात, कभी हरियाणा, कभी पटना की लय।
जहाँ भी गए, साथ में गए,
सच्चाई का परचम लिए।
कभी अनीश के कैमरे की नज़र में सच्चाई दिखती,
तो जितेंद्र के शब्दों में आग सी जलती।
दोनों मिलकर खबर बनाते,
जनता के दिल में भरोसा जगाते।
समाज ने बहुत कोशिश की,
इनकी दोस्ती तोड़ने की साजिश की।
पर लोगों को क्या पता,
ये रिश्ता है स्याही और कागज़ का —
जो जितना लिखा जाए, उतना और गहरा होता है।
आज भी जिंदा हैं दोनों —
ना सिर्फ जिस्म से, बल्कि जज़्बातों से।
उनका नाम आज भी मीडिया की गलियों में गूंजता है,
जब कोई कहता है —
“सच्ची पत्रकारिता मर गई”,
तो कोई आवाज़ आती है —
“नहीं, जब तक जितेंद्र और अनीश हैं, सच्चाई जिंदा है।”
लोग कहते हैं —
“इनकी कहानी खत्म नहीं होगी,
ये दोस्ती आगरा की पहचान बन चुकी है।”
दोनों आज भी सुबह मिलते हैं,
चाय की प्याली में खबरों की बहस चलती है।
कभी मंदिर जाते हैं, कभी मस्जिद,
कभी गुरुद्वारे में संग मत्था टेकते हैं —
क्योंकि इनके दिल में मज़हब नहीं,
बस इंसानियत का धर्म है।
और जब शाम ढलती है,
तो दोनों फिर कल की योजना बनाते हैं —
कौन सी खबर दिखानी है, किसकी आवाज़ उठानी है।
साथ बैठकर मुस्कुराते हैं और कहते हैं —
“सफर अभी बाकी है दोस्त,
कहानी अभी अधूरी नहीं।”
दो धर्म, एक दिल — यही है इनका सार,
मीडिया की स्याही में लिखे ये प्यार के अक्षर अपार।
जितेंद्र और अनीश, सिर्फ नाम नहीं मिसाल हैं,
इनकी दोस्ती – आगरा की सबसे खूबसूरत ताल है।

